*संविधान की मूल भावना और दमित होती जनभावनाएं*
भारतीय संविधान दिवस पर समस्त देशवासियों को हार्दिक शुभकामनाएँ।
आज संविधान की मूल भावना के साथ खिलवाड़ हो रहा, जन भावनाओं को कुचला जा रहा, चुनाव आयोग का लोकतंत्र पर कब्जा हो गया इसके बावजूद लोग खामोश हैं। यह एक समसामयिक और गंभीर मामला है, जो भारतीय लोकतंत्र, उसकी संस्थाओं और नागरिक चेतना की मौजूदा स्थिति पर गहराई से प्रश्न उठाता है।
भारत का संविधान न केवल शासन की रूपरेखा है, बल्कि यह देश की आत्मा है। इसमें निहित मूल भावना समानता, स्वतंत्रता, न्याय और बंधुत्व के सिद्धांतों में दिखाई देती है। परंतु आज अनेक अवसरों पर ऐसा प्रतीत होता है कि संविधान की इस मूल भावना से धीरे-धीरे विचलन हो रहा है। राजनीतिक सत्ता के केंद्रीकरण, संस्थाओं की स्वायत्तता में कमी, और सामाजिक ध्रुवीकरण के बढ़ते प्रभाव के कारण लोकतंत्र की स्वस्थ आत्मा पर प्रश्नचिह्न लगने लगे। संविधान का उद्देश्य था कि शासन जनता की इच्छा से संचालित हो, न कि किसी एक दल या व्यक्ति की शक्ति से। परंतु आज व्यवस्था में ऐसे संकेत मिलते हैं कि निर्णय प्रक्रिया में जनहित के बजाय दलगत राजनीति या सत्ता-संतुलन का प्रभाव बढ़ गया है।
यह सच है कि जनता लोकतंत्र की रीढ़ होती है, पर विडंबना यह है कि आम नागरिकों की आवाज़ धीरे-धीरे अप्रभावी होती जा रही। विरोध को असहमति नहीं, बल्कि विरोधाभास मानने की प्रवृत्ति बढ़ी है। सोशल मीडिया पर भय या दमन का माहौल बनना, पत्रकारिता की आजादी का सीमित होना तथा आलोचनात्मक विचार रखने वालों को निशाने पर लेना ये सब बातें लोकतांत्रिक चेतना को कमजोर करती हैं।
जब जनभावनाओं को अभिव्यक्त करने के लिए मंच सीमित होने लगते हैं, तो समाज के भीतर आक्रोश या निराशा पनपती है। लोकतंत्र की गुणवत्ता केवल मतदान से नहीं, बल्कि जनता के निरंतर सहभाग, बहस और आलोचना के अधिकार से तय होती है। इन अधिकारों की उपेक्षा संविधान की आत्मा के विपरीत है।
सबसे गंभीर मसला है चुनाव आयोग की भूमिका बदलना। चुनाव आयोग को भारतीय लोकतंत्र का प्रहरी माना जाता है। इसका दायित्व है स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव कराना, ताकि सत्ता का हस्तांतरण पारदर्शी ढंग से हो सके। परंतु बीते कुछ सालों में इस संस्था की निष्पक्षता और स्वायत्तता पर सवाल उठने लगे हैं। आयोग पर यह आरोप लगते रहे हैं कि वह सत्तारूढ़ दलों के प्रति नरमी बरतता है, जबकि विपक्ष के मामलों में सख्त रुख अपनाता है।
आयोग की निष्पक्षता पर जनता का विश्वास ही लोकतंत्र की स्थिरता की गारंटी है। यदि यह विश्वास डगमगाता है, तो चुनाव प्रक्रिया का नैतिक आधार कमजोर होता है। यही कारण है कि संविधान निर्माताओं ने इसे संसद, न्यायपालिका और कार्यपालिका से स्वतंत्र बनाया था। लेकिन आज यह संरचनात्मक स्वतंत्रता व्यवहारिक रूप से चुनौती का सामना कर रही है।
शायद सबसे चिंताजनक पहलू यह है कि तमाम विसंगतियों और असंतुलनों के बावजूद जनता का बड़ा वर्ग मौन है। यह मौन भय, उदासीनता या असहायता से उपजा हो सकता है। परंतु लोकतंत्र में मौन भी एक प्रकार की सहमति बन जाता है। जब नागरिक अन्याय या असमानता के प्रति चुप रहते हैं, तो सत्ता को मनमानी का अवसर मिलता है। लोकतांत्रिक चेतना केवल अधिकार मांगने से नहीं, बल्कि जिम्मेदारी निभाने से भी मजबूत होती है। यदि जनता अपने संवैधानिक अधिकार और संस्थाओं की अखंडता की रक्षा के लिए सक्रिय न रहे, तो यह मौन धीरे-धीरे लोकतंत्र को औपचारिकता में बदल देता है।
भारत का लोकतंत्र अनेक संघर्षों की उपज है। यह केवल एक शासन प्रणाली नहीं, बल्कि जीवन जीने का तरीका है, जिसमें संवाद, असहमति, और न्याय का सम्मान अंतर्निहित है। जब संविधान की मूल भावना पर चोट होती है, जनभावनाओं को दबाया जाता है, और संस्थाएँ निष्प्रभावी होती हैं, तो लोकतंत्र अपने सार से दूर हो जाता है। इस स्थिति में नागरिक समाज, मीडिया, न्यायपालिका, और आम जनता सभी को अपनी भूमिका का पुनर्मूल्यांकन करना होगा। लोकतंत्र को जिंदा रखने का मतलब है उसे लगातार पोषित करना, प्रश्न करना, और सुधार की दिशा में सक्रिय रहना। खामोशी समाधान नहीं, बल्कि पतन की शुरुआत है।
हमारा संविधान समानता, न्याय, स्वतंत्रता और बंधुत्व जैसे मूल्यों का संरक्षक है।
आइए, हम सब मिलकर अपने संविधान, लोकतंत्र और मूल्यों की रक्षा का संकल्प दोहराएँ।









